पूना की सन्धि Poona Pact

पूना की सन्धि 3 जून, 1818 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेज़ों के मध्य हुई थी। इस लड़ाई में पेशवा की सेना हार गई और उसका योग्य सेनापति गोखले मारा गया। सन्धि के मुख्य बिन्दु बाजीराव द्वितीय एक क़ायर और विश्वासघाती व्यक्ति था। नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद वह स्वयं ही सत्ता सुख भोगने के लिए आतुर हो उठा था। नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद उसके रिक्त पद के लिए दौलतराव शिन्दे और जसवन्तराव होल्कर में प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गई थी। इस प्रतिद्वंद्विता के कारण जो युद्ध हुआ, उसमें बाजीराव द्वितीय ने शिन्दे का साथ दिया, लेकिन होल्कर की सेना ने उन दोनों की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। भयभीत पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1801 ई. में बसई भागकर अंग्रेज़ों की शरण ली और वहीं एक अंग्रेज़ी जहाज़ पर बसई की सन्धि (31 दिसम्बर, 1802) पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके द्वारा उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी का आश्रित होना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने बाजीराव द्वितीय को राजधानी पूना में पुन: सत्तासीन करने का वचन दिया और पेशवा की रक्षा के लिए उसने राज्य में पर्याप्त सेना रखने की ज़िम्मेदारी ली। इसके बदले में पेशवा ने कम्पनी को इतना मराठा इलाक़ा देना स्वीकार कर लिया, जिससे कम्पनी की सेना का ख़र्च निकल आए। मराठा सरदारों ने बसई की सन्धि के प्रति अपना रोष प्रकट किया, क्योंकि उन्हें लगा कि पेशवा ने अपनी क़ायरता के कारण उन सभी की स्वतंत्रता बेच दी है। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने शीघ्र ही सिद्ध कर दिया कि वह केवल क़ायर ही नहीं, बल्कि विश्वासघाती भी है। वह अंग्रेज़ों के साथ हुई सन्धि के प्रति भी सच्चा साबित नहीं हुआ। सन्धि के द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध उसे रुचिकर नहीं लगे। उसने मराठा सरदारों में व्याप्त रोष और असंतोष का फ़ायदा उठाकर उन्हें अंग्रेज़ों के विरुद्ध दुबारा संगठित किया। नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में संगठित मराठा सेना ने पूना की अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी को लूटकर जला दिया और खड़की स्थित अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों में, जनवरी 1818 में 'कोरेगाँव' और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में भी पराजित हुआ। बाजीराव द्वितीय ने भागने की कोशिश की, लेकिन 3 जून, 1818 ई. को उसे अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण करना ही पड़ा और उनसे सन्धि करनी पड़ी। यह सन्धि इतिहास में पूना की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है। अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों की स्वतंत्रता नष्ट करने के लिए बाजीराव द्वितीय सबसे अधिक ज़िम्मेदार था। 

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